हमारा मानव शरीर अनेक सम्मिष्र क्रियाओं का एक ऐसा समागम है जो सदैव साम्यावस्था या संतुलन की स्थिति में रहता है। शरीर के विभिन्न अंगों के बीच आंतरिक सामंजस्य एवं प्रकृति व प्राकृतिक प्रतिवेश के साथ शारीरिक सद्भाव के फलस्वरूप ही यह संतुलन संभव हो पाता है।
जब भी हमारे प्राकृतिक संतुलन में परिवर्तन होता है, तो इसके परिणाम स्वरूप शरीर में असामान्यता आ जाती है (हेतुविज्ञान-रोगाजनन), जो तत्पश्चात् बीमारी का कारण बनता है। आयुर्वेद के अनुसार किसी भी रोग का मूल कारण वात (वायु), पित्त (बलग़म) तथा कफ (पित्तरस) दोषों में असंतुलन एवं विषमता है।
कोई भी बीमारी प्रायः किसी अनुवांशिक दोष, पर्यावरणीय तनाव, संक्रमण, अनुचित जीवन शैली आदि द्वारा जनित शारीरिक विकृति के रूप में विकसित होती है। इन सभी बीमारियों को प्रायः एक समान लक्षणों व संकेतों के अभिज्ञेय समूह द्वारा दर्शाया जा सकता है।

विभिन्न कारण क्या है?
जीवन शैली
वह बीमारियां जो लोगों के अपना जीवन जीने के तरीके से जुड़ी हैं, इस श्रेणी में आती हैं। इनमें आहार, पोषण, व्यायाम, नींद आदि सम्मिलित हैं। जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां आमतौर पर मादक द्रव्यों के सेवन (शराब, नशा, धूम्रपान), शारीरिक गतिविधि की कमी और अस्वास्थ्यकर भोजन के कारण होती हैं। हृदय रोग, मोटापा और टाइप II मधुमेह इसके कुछ उदाहरण हैं। भारत और समस्त विश्व में मुख्यत: अस्वस्थ जीवन शैली के कारण गैर संचारी रोगों (एन सी डी) में, संक्रामक रोगों की तुलना में एक बड़ा परिवर्तन आया हैI
मनोदैहिक
आयुर्वेद के अनुसार हमारी भावनाओं का हमारे मन और शरीर पर एक प्रबल प्रभाव पड़ता है तथा हमारे मन का हमारे भौतिक शरीर पर एक गहन प्रभाव पड़ता है। एक तनावग्रस्त शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रायः कम होती है। कुछ रोग तनाव और चिंता जैसे मानसिक कारकों से विशेषतः प्रवृत्त होते हैं। खुजली (एग्जिमा), अपरस (सोरायसिस), उच्च रक्तचाप (हाइपरटेंशन), व्रण (अल्सर) एवं ह्रदय रोग इसके कुछ आम उदाहरण हैं। कभी-कभी बीमारियों के कोई शारीरिक कारण नहीं होते - जैसे कि तनाव के कारण सीने में दर्द होना। ऐसे ही कुछ अन्य उदाहरण शरीर में कंपन्न होना, जी मिचलाना, शुष्क मुंह आदि हैं।
आनुवंशिक
सामान्य अनुक्रम से अलग डीएनए अनुक्रम में परिवर्तन की वजह से पूर्ण या आंशिक रूप से उत्पन्न रोगों को आनुवंशिक रोग कहते हैं। किसी भी व्यक्ति के डीएनए में एक या एक से अधिक जीन में उत्परिवर्तन मौजूद होते हैं जो कि उसे विशिष्ट कारकों के तहत विकार या बीमारी को विकसित करने के लिए प्रवृत्त करते हैं। ऐसी जीन असमानताएं, माता पिता से संतानों को वंशागत प्राप्त हो सकती हैं या किसी यादृच्छिक घटना या पर्यावरणीय अनावृत्ति के माध्यम से उसके जीवनकाल में विकसित हो सकती है। आनुवंशिक रोगों के उदाहरण पुटिया तन्तुमयता (सिस्टिक फाइब्रोसिस), सिकल-सेल रक्ताल्पता (सिकल सेल एनीमिया), वर्णांधता (रंग-बोध की अक्षमता) इत्यादि हैं।
बाह्य कारक
अनेक रोग बाहरी कारक जैसे कि जीवाणु (बैक्टीरिया), विषाणु (रोगजनक वायरस), परिवेष्टक तनावो (प्रदूषण, रासायनिक उत्तेजक) के संपर्क में आने से होते हैं। ऐसी परिस्थितियों में शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता तथा विश हरण तंत्र इन बाह्य पदार्थों को शरीर से नष्ट करने में लग जाते हैं। शरीर में होने वाले अधिकांश संक्रमण (इंफेक्शन) तथा प्रदाह (इनफ्लेमेशन) इन्हीं रोगों की श्रेणी में आते हैं।
समय और चरण के आधार पर किसी व्यक्ति में मौजूद रोगों का एक और वर्गीकरण होता है।
तरुण रोग (एक्यूट रोग)
यह ऐसी बीमारी या विकार हैं जो अत्यंत तीव्रता से आते हैं तथा थोड़े समय तक रहते हैं। इन रोगों के विशिष्ट लक्षण होते हैं। आकस्मिक आरंभ एवं गंभीरता तरुण रोगों के कुछ आम लक्षण हैं। इनकी अवधि रोग के आधार पर भिन्न हो सकती है।
जीर्ण रोग (क्रोनिक रोग)
जीर्ण या दीर्घकालीन शब्द का प्रयोग आम तौर पर तब किया जाता है जब बीमारी का क्रम तीन महीने से अधिक समय तक चलता है। जीर्ण (क्रोनिक) स्थिति वह है जिसका प्रभाव लगातार या अन्यथा लंबे समय तक बना रहता है। उच्चरक्तचाप (हाइपरटेंशन), मधुमेह (डायबिटीज), भोजन विकार (ईटिंग डिसऑर्डर), अवसाद (डिप्रेशन) इत्यादि जीर्ण बीमारियों के उदाहरण हैं।
प्रारंभिक स्तर पर ही पहचान हो जाने से आमतौर पर इनके कम गंभीर परिणाम होते हैं। प्रोत्साहन एवं निवारक तकनीक आमतौर पर जीर्ण रोगों के विरुद्ध अधिक प्रभावशाली होती हैं। नैदानिक (क्लीनिकल) निवारक सेवाओं में आमतौर पर बीमारी के अस्तित्व या इसके विकसित होने की प्रवृत्ति की जांच शामिल होती है।
हम रोगो का सामना कैसे करें?
हमारे शरीर में स्वयं ही आरोग्य होने की शक्ति है। इसमें प्राकृतिक संतुलन वापस बनाए रखने की सशक्त प्रवृत्ति एवं क्षमता है। अतः किसी भी बीमारी से निपटने का सबसे अच्छा तरीका उन मूल कारणों को शरीर से निकालना एवं खत्म करना है जो हमारे शरीर के संतुलन को बिगाड़ रहे हैं। इसके लिए हर व्यक्ति विशेष को निजीकृत होने की आवश्यकता है तथा इसका मूल उद्देश्य शरीर, मन और आत्मा के आयामों को निरंतर स्वस्थ रखना है।
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